जब हम दान देते हैं, तो हमारा नर्व सिस्टम खुशी से चमक उठता है, भले ही वह छोटा सा दान हो...
अगर हम इंटरनेट खंगालें, जैसा 60 करोड़ भारतीय करते हैं, तो हमें कई बार घृणित बातें करते लोग नजर आएंगे। अनजाने में अपने भीतर पनाह दिए हुए द्वेष और घृणास्पद भाषा में कई लोग इसका जवाब देते हुए भी दिखाई देंगे शायद इसलिए क्योंकि हमें लगता है मुखौटे के पीछे रहकर बुरी बातें कहते हुए हम सुरक्षित हैं हम एक झूठी पहचान, किसी उपनाम या फिर रूपबदलि तस्वीर के पीछे रहते हैं और शक्तिशाली होने का दंभ महसूस करते हैं लेकिन बिना जिम्मेदारी लिए। शायद यह वक्त का एक पहर भर है, जो जल्दी खत्म हो जाएगा। शायद तिरस्कार, जहर और नफरत सिर्फ लहरें हैं, जो सभ्यता के अथाह सागर के सतह पर हौले से हलचल पैदा कर देता है।
उस सभ्यता पर जिसे हम भारत कहते हैं। जिसकी गहराइयों में 5000 साल हैं, संचित ज्ञान, संयम, और सहानुभूति है। संभव है की सतह पर मौजूद हलचल समन्वयात्मक परंपरा को पहचानने में दिक्कतें पैदा करें। वह परंपराएं, जहां कई सारी संस्कृतियां आकर मिले हैं और जिससे आज का इंसान तैयार हुआ है। तो द्वेष और नफरत से भरे चुनावी मौसम के बाद आज बात निजी और राजनीतिक दुनिया में एक-दूसरे के साथ गाली-गलौज करने वाले को लेकर नहीं, आज बात होगा मैत्री, करुणा और मुद्रित यानी सहदयता का। बात अंजानो के साथ नेकी का। हाल ही में बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के साथ भारत में हर दिन दान को लेकर एक रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार पता चला है की हमारे देश में सालभर में आम लोगों ने 34 हजार करोड़ रूपए दान दिए हैं।
यह दान धार्मिक संस्थानों, समुदायों और आपदा के बाद सहायता के लिए दिया गया है। यह देश के सभी अरबपतियों के दिए दान और केंद्र सरकार के महत्वपूर्ण स्किम के सालाना बजट से भी ज्यादा है। अंजानो की मदद के विचार का अपना गहरा दार्शनिक अर्थ है। यह मानवता की वह सोच है जो हर धर्म और राजनीती से भी परे है।यह सर्वव्यापी, मोक्ष पाने से जुड़ा ऐसा विचार है जो आम लोगों को प्रयतन करने का सहूलियत देता है। जैसा की यह कुदरती है हम अपने पैसे और समय उन लोगों को दें जिन्हें हम जानते हैं, जिनपर भरोसा करते हैं या जो हमारी तरह हैं। वैसा ही कुछ हमारे भीतर अंतनिर्हित है की हम मुश्किल में फंसे अंजानो के मदद के लिए भी हमदर्दी रखते हैं।
हम संवेदनशील होते हैं तो उस अनजान व्यक्ति के जगह खुद को देखने लगते हैं। और जिस सहानुभूति का अपेक्षा हमें खुद के लिए है हम उसी तरह से व्यवहार करते हैं लंगर, सेवा, जकात, जैसे हमारी परंपराएं करोडो लोगों के लिए श्रमदान को संभव करने का जरिया बनता है। कई परिवारों में घर के बाहर वहां से गुजरने वाले यात्रियों के लिए पानी का मटका भरकर रखने का परिपाटी चला आ रहा है। हम सभी ने ऑटो वाले के कीमती सामान लौटाने की कहानिया पढ़े हैं।
हर भारतीय ने कभी न कभी अनजान व्यक्ति के किसी दयालु व्यवहार को महसूस किया होता है। हमारे देश में दानपात्र का भी अत्याधिक महत्वा है। एक श्रोत के मुताबिक, पूरी दुनिया में स्वंयसेवक और दान देने वाले सबसे ज्यादा भारत में हैं। मुझे आज भी याद है जब मैंने पहली बार किसी गैर परिचित की मदद किया था। न मैं उन्हें जानता था न कभी मिला हूं लेकिन यह एहसास भीतर रोशनी देने वाले दिवाली के दीपक के जैसा था। दौलतमंद बनाने से पहले जो लोगों ने जो पैसा और समय दूसरों को दिया वह आज परोपकारी बनने के बाद दिए दान से कही ज्यादा महत्वपूर्ण है।
हर दिन छोटी-छोटी मदद करने वाले लोग आमिर परोपकारी से ज्यादा ताकतवर हैं। क्योंकि ये सफल समाज और देश की नींव है। अपनी दुनिया में कैद रहना, दूसरों की जिंदगी और अनुभवों से कटा हुआ रहना आज पहले से कहीं ज्यादा संभव है। तकनीक जो हमें दुनियाभर के लोगों से बतियाने का मौका देता है वहीं हमें अपने तरह के लोगो को ग्रुप में बांट भी देता है। जिसके चलते हम सहानुभूति, अपने समुदायों का विविधता में बहने वाले विचारों से दूर होते जा रहे हैं।
हर रोज देने का आदत लोगों को अकेलेपन से दूर एक दूसरे से जुड़ने और दूसरों में शामिल होने का मौका दे रहा है। न्यूरोसाइंटिस्ट के रिसर्च के मुताबिक जब हम दान देते हैं, भले ही वह छोटा सा दान हो, तो हमारा नर्व सिस्टम ख़ुशी से चमक उठता है। हम संतुष्टि का अनुभव करते हैं, हम जुड़ाव महसूस करते हैं। हावर्ड बिजनेस स्कुल के प्रोफेसर माइकल नॉर्टन ने यूएस से युगांडा तक 130 देशों के डेटा पर रिसर्च किया है। इससे पता चला की जो लोग दूसरों पर खर्च करते हैं वो उन लोगो से कहीं ज्यादा खुश रहते हैं जो कमाई का मोटा हिस्सा खुद पर लुटा देते हैं। यही वजह है की जॉय ऑफ गिविंग पूरी दुनिया में एक सा अनुभूति है। ऐसी खासियत जो मानव सवभाव के केंद्र में मौजूद है, फिर चाहे वह किसी भी संस्कृति का हिस्सा हो।
नॉर्टन कहते हैं की जैसे हम सब घी-शक्कर के आदतन हैं वैसे ही हम सबके भीतर दूसरों के मदद का आकर्षण होता है। सौभाग्य से एक रिसर्च रिपोर्ट बताता है की इस सदी के युवा हर रोज दान देने को लेकर ज्यादा उत्सुक रहते हैं। आमने-सामने मिलकर मार्केटिंग हो या फिर ऑनलाइन क्राउडफंडिंग, छोटा-छोटा मदद देने वाले ये तरीके हर साल 20-30% बढ़ रहे हैं। तो सही समय आ गया है जब हर रोज देने की प्रवृति को बढ़ावा दिया जाए।
भारत का भूगोल उसे बदलते मौसमों वाले क्षेत्र में खड़ा करता है। हम नहीं जानते कब, किस तरह के प्राकृतिक आपदाएं बढ़ जाएंगे। साथ ही हमारे यहां बड़ी संख्या में युवा और बेसब्र जनसंख्या है जो आर्थिक सुरक्षा झेल रहे हैं। आपदाओं से पैदा होनेवाले दिक्कतों से उबरने के लिए मदद और सहयोग की तैयारी हमेशा रखना होगा। गैर-परिचितों के मदद उसमे सबसे अहम् है। और हमारे देश में ये परंपरा आबाद है. तो भला इससे बेहतर कौन-सा वक्त होगा भारत के शाश्वत और स्नेहपूर्ण धड़कनो को सुनने-सुनाने का?
कमेंट, फॉलो और शेयर करें.
0 comments:
Post a Comment