उर्वरकों का ज्यादा इस्तेमाल मिट्टी के उपयोगी तत्वों को खत्म करने के साथ ही को भी नुकसान पहुंचा रहा है।
यह अच्छी बात है की आम बजट में खेती-किसानी और गांव-गरीबों की सुध ली गई, लेकिन इसी के साथ कृषि से जुड़ी कुछ अन्य समस्याओं का भी समाधान खोजने की जरुरत है। माना जाता है की अंग्रेज सत्ता के समय 1943 में बंगाल में पड़े अकाल ने देश में खेती की सूरत ही बदल दिया था। इस अकाल ने नीतिकारों को यह महसूस करा दिया था की सबसे पहली प्राथमिकता लोगो का पेट भरने का है। इसके बाद खेती की पैदावार बढ़ाने के रास्ते तलाशे गए।
बाद में हरित क्रांति का आगाज हुआ। धीरे-धीरे बीजों से लेकर खेती के नए तौर-तरीके और खाद की खुराक को चुस्त करने की शुरुआत हुआ। खेती-बाड़ी को लाभ का सौदा बनाकर देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश शुरू हुई। समय के साथ हम खाद्यान्न के मामले में हम आत्मनिर्भर हुए, लेकिन इसके साथ-साथ एक असुरक्षा की भी शुरुआत हुई है। खाद्य सुरक्षा की तरफ तो हम बढे, पर भोजन की पूरी परिभाषा में हम खरे नहीं उतर पाए। एक तरफ जहां भोजन में आवश्यक तत्वों की कमी हुई वहीं दूसरी तरफ खेती में ऐसे तत्वों का उपयोग बढ़ा जो शरीर के लिए घातक हैं।
यह सब हुआ मिटटी के मिजाज के कारण, जिसे हमने रसायनो से बीमार कर डाला। असल में खाद्य सुरक्षा की होड़ में सिर्फ उत्पादन की ही तरफ चिंतित रहे। उसकी गुणवत्ता की तरफ ध्यान नहीं दे पाए। यह सब रसायनों के बड़े उधोगों की शुरुआत के चलते हुआ। तीन परिस्थितियों ने इन उधोगों के आगे हमने घुटने टेक दिए। पहला, प्रयाप्त भोजन की आवश्यकता जो उच्च रसायनों के उपयोग से संभव था। दूसरा, आकर्षक विज्ञापन जिन्होंने उत्पाद को आकर्षित किया और तीसरा, लम्बी-चौड़ी सब्सिडी।
आज देश में 57 बड़े, करीव इतने ही मझोले और 64 छोटे दर्जे के ऐसे उधोग है जो खेती के रसायनो कीआपूर्ति कर रहे हैं। लगभग हर वर्ष 121.10 लाख मीट्रिक टन रासायनिक खादों का उत्पादन अपने देश में होता है, जो दुनिया में तीसरे नंबर पर है और बाजार में इनकी हिस्सेदारी 25 फीसद है। 1950-51 में देश उर्वरक की खपत प्रति हेक्टेयर एक चोथाई से कम होता था। आज स्थिति अलग है।
खेती में नाइट्रोजन और फॉस्फोरस का आवश्यकता होता है। ये दोनों मुख्य उर्वरक हैं। आज हम करीब 121.10 लाख मीट्रिक टन नाइट्रोजन और 57 लाख मीट्रिक टन फॉस्फोरस पैदा करते हैं। इतनी मात्रा में रसायनिक खादों का प्रयोग पर्यावरणीय विषमताओं का भी करक है। इन खादों का अधिकांश हिस्सा पानी के साथ या तो नदी-नालो के रास्ते समुद्र या फिर भूमिगत जल को प्रदूषित करता है। अत्यधिक फॉस्फेट एक ऐसी बैक्टीरिया को जन्म देता है जो मानव शरीर के लिए हानिकारक होता है।
इसी तरह अत्यधिक मात्रा में नाइट्रोजन के उपयोग से पानी में ऑक्सीजन की कमी हो जाता है जिससे जल पादप और जीवों पर प्रतिकूल असर पड़ता है। यही वजह है की यूरोप और अमेरिका ने इनके उपयोग को नियंत्रित किया है। फॉस्फोरस खाद्य में कैडमियम होता है जो किडनी के लिए नुकसानदायक है। उसमे फलोराइड की भी अधिकता पाया जाता है, जो शरीर के लिए घातक है। पेट से लेकर दांतों की बीमारी का एक कारण फलोराइड ही है।
यह भी पाया गया है की फॉस्फेट का अधिक उपयोग मिट्टी में यूरेनियम-238 की मौजूदगी का कारण बन सकता है जो बाद में पानी भोजन के साथ शरीर में भी पहुंच सकता है। रासायनिक खादों के लगातार अत्यधिक उपयोग मिट्टी में अतिसूक्षम आवश्यक तत्वों का भी कमी आता है। पिछले 50-60 सालों में जिंक, लौह, तांबा एवं मैग्निशियम हमारी मिट्टी से खत्म हो गए हैं। रासायनिक खादों के उत्पादन में ऊर्जा का जो अत्यधिक उपयोग होता है उसके भी दुष्परिणाम आने लगें हैं।
अमोनिया खाद बनाने के लिए दुनिया की 5 फीसद जलाऊ गैस का उपयोग किया जाता है। चूंकि नाइट्रोजन खाद मांग अधिक है इसलिए उसके उत्पादन से नाइट्रस ऑक्साइड कार्बन डाइऑक्साइड के बाद दूसरा बड़ा वायु प्रदुषण का कारण बन रहा है। दूसरे देशों खासतौर से यूरोप, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया ने इस दिशा में जरुरी कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। वहां पानी-मिट्टी को उर्वरको के प्रदुषण से बचाने के लिए कायदे-कानून बन चुके हैं। साथ ही खेती में उनके उपयोग पर नियंत्रण भी शुरू हो चूका है, पर अपने देश में नियंत्रण के अभाव में हालात गंभीर हो रहे हैं।
हमारे यहां किसान को यह सिखाया जाता है की अधिक पानी और खाद ही अच्छी फसल के कारक हैं। यही कारण है की दोनों का ही सीमा से अधिक उपयोग हो रहा है रासायनिक खादों का ज्यादा इस्तेमाल मिट्टी के उपयोगी तत्वों को को खत्म करने का काम कर रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो जल्द ही बड़े दुष्परिणाम सामने आएंगे। सरकारों को मिट्टी की सेहत को बचाने के लिए जैविक खादों के उत्पादन को भी उधोगों के दायरे में ले आना चाहिए। इन्हे भी सब्सिडी का लाभ दिया जाना चाहिए। इससे जैव खाद उधोग को तो बढ़ावा मिलेगा ही,साथ ही पर्यावरण और भोजन, दोनों की सुरक्षा में बड़ा योगदान होगा। जैविक खाद उधोग बड़े स्तर पर रोजगार पैदा करेंगे।
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